लिङ्गस्वरूप तथा शिवतत्त्वका अभेद।।
कहते हैं-निर्गुण निराकार ब्रह्म शिव ही लिङ्गके मूल
कारण हैं तथा स्वयं लिङ्गरूप भी हैं। शब्द, स्पर्श, रूप,
रस, गन्ध आदिसे रहित अगुण, अलिङ्ग (निर्गुण) तत्त्वको
ही शिव कहा गया है तथा शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्धादिसे
संयुक्त प्रधान प्रकृतिको ही उत्तम लिङ्ग कहा गया है, वह
जगत्का उत्पत्ति-स्थान है, पंचभूतात्मक अर्थात् पृथ्वी,
जल, तेज, आकाश, वायुसे युक्त है; स्थूल है, सूक्ष्म है,
जगत्का विग्रह है तथा यह लिङ्गतत्त्व निर्गुण परमात्मा
शिवसे स्वयं उत्पन्न हुआ है।
महत्तत्त्व आदिसे लेकर पंचमहाभूतपर्यन्त सभी तत्त्व
अण्डकी उत्पत्ति करते हैं, इस सृष्टिमें करोड़ों अण्डों ।
(ब्रह्माण्डों)-की स्थितिके विषयमें कहा गया है। प्रधान
(प्रकृत्ति) ही सदाशिवके आश्रयको प्राप्त करके इन :
करोड़ों ब्रह्माण्डोंमें सर्वत्र चतुर्मुख ब्रह्मा, विष्णु और के
शिवका सृजन करती है।
इस सृष्टिकी रचना, पालन तथा संहार करनेवाले वे =
ही एकमात्र महेश्वर हैं। वे ही महेश्वर क्रमपूर्वक तीन ।
रूपोंमें होकर सृष्टि करते समय रजोगुणसे युक्त रहते हैं, ८
पालनकी स्थितिमें सत्त्वगुणमें स्थित रहते हैं तथा प्रलयकालमें :
तमोगुणसे आविष्ट रहते हैं। वे ही भगवान् शिव प्राणियोंके =
सृष्टिकर्ता, पालक तथा संहर्ता हैं-
सर्गस्य प्रतिसर्गस्य स्थितेः कर्ता महेश्वरः॥
सर्गे च रजसा युक्तः सत्त्वस्थः प्रतिपालने।
प्रतिसर्गे तमोद्रिक्तः स एव त्रिविधः क्रमात्॥
आदिकर्ता च भूतानां संहर्ता परिपालकः।
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