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    ब्रह्माजीद्वारा सृष्टि-रचना।।

     

                              ।। ब्रह्माजीद्वारा सृष्टि-रचना।

    सूतजी कहते हैं-सर्वप्रथम ब्रह्माजीने अबुद्धिपूर्वक अर्थात् सम्यक् विचार किये बिना सृष्टि-रचना प्रारम्भ कर दी, जिससे उन स्वयम्भूके द्वारा तम (अज्ञान), मोह, महामोह (भोगेच्छा), तामिस्र (क्रोध) तथा अन्धतामिस्र (अभिनिवेश) नामवाली- ये पाँच प्रकारकी (पंचपर्वा) अविद्याएँ उत्पन्न हो गयी | 

    तदनन्तर ध्यानपूर्वक मनन करते हुए उन ब्रह्माजीका चिन्तन त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रज तथा तमोगुणसे युक्त) हो गया।

    ब्रह्माजीके द्वारा नौ सर्गों (सृष्टि) -की रचना हुई, जिनमें प्रारम्भके तीन सर्ग प्राकृत हैं और पाँच सर्ग वैकृत हैं तथा नौवाँ कौमारसर्ग प्राकृत एवं वैकृत दोनों है। 

    पहला सर्ग महत्व आज का है, दूसरा भौतिक सर्ग है, जो भूत तन्मात्राओंका है, तीसरा ऐन्द्रिय सर्ग है और चौथा मुख्य सर्ग वृक्ष आदिका कहा जाता है।

     तिर्यक् योनिवाले पशु पक्षियोंवाला सर्ग पाँचवाँ सर्ग है तथा छठा देवताओंकी सृष्टिवाला देवसर्ग कहा जाता है । सातवाँ सर्ग मनुष्योंका, आठवाँ अनुग्रहसर्ग तथा नौवाँ कौमारसर्ग कहा जाता है । तदुपरान्त भगवान् ब्रह्माने सनक, सनन्दन, सनातन

    तथा सनत्कुमारमुनियोंको उत्पन्न किया। इसके बाद उन्होंने अपनी योगविद्यासे मरीचि, भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष, अत्रि तथा वसिष्ठ-इन ऋषियोंको उत्पन्न किया। ये ब्रह्मवादी ऋषि ब्रह्माके ही तुल्य माने गये हैं।

    इसी प्रकार यहाँ अग्रजन्मा मुनियोंकी भार्याओंका कुल तथा प्रजाओंकी उत्पत्तिका वर्णन भी प्राप्त होता है। स्वायम्भुव मनु तथा रानी शतरूपाका सृजन भी ब्रह्माद्वारा हुआ।

    सृष्टिके प्रारम्भमें ब्रह्माजीने शिवजीको अर्धनारीश्वर रूपमें देखकर कहा कि आप स्त्री-पुरुषका विभाग कीजिये। तब शिवजीकी देहसे सतीजी अलग हो गयीं। 

    उन्हीं सतीके अंशसे तीनों लोक सभी स्त्रियोंकी उत्पत्ति हुई तथा ग्यारह प्रकारके रुद्र भी उन शिवके अंशसे उत्पन्न ं हैं। 

    इस प्रकार सम्पूर्ण सत्रीजातिके रूपमें वे सतीजी तथा र पुरुषजातिके रूपमें नीललोहित शिवजी अधिष्ठित हैं ।

    ब्रह्माजीकी प्रार्थनापर भगवान् शंकरने क्षणभरमें लीलापूर्वक अपने ही तुल्य अनेक रुद्र उत्पन्न कर दिये। क उन रुद्रोंने सभी चौदह भुवनोंको पूर्णरूपसे व्याप्त कर र लिया।

     जरा-मरणसे मुक्त तथा निर्मल आत्मावाले उन इ, नीललोहित रुद्रोंको देखकर पितामह ब्रह्माजीने उनकी स्र अनेक प्रकारसे स्तुति की तथा भगवान् शिवजीकी ) प्रदक्षिणाकर उनसे प्रार्थना की-हे प्रभु ! आपने तो अमर

    प्रदक्षिणाकर उनसे प्रार्थना की-हे प्रभु ! आपने तो अमर प्रजाओंको उत्पन्न कर दिया। ऐसी मृत्युहीन प्रजाकी सृष्टि उचित नहीं है, अतएव हे विभो! अब आप मरणधर्मा प्रजाओंका सृजन करनेकी कृपा करें।

    भगवान् शंकरने ब्रह्मासे इसके उत्तरमें कहा कि इस प्रकारकी (मरणधर्मा) सृष्टि करनेकी मेरी स्थिति नहीं है, अतः आप ही मृत्युसे युक्त रहनेवाली प्रजाका अपने इच्छानुसार सृजन कीजिये। भगवान् शंकरकी ऐसी आज्ञा प्राप्तकर चतुरानन ब्रह्माने जरा

    मरणसे युक्त इस सम्पूर्ण -जंगम जगत्की रचना की ।  भगवान् रुद्र दयार्द्र होकर सभी प्राणियोंका कल्याण करते हैं । इस लोकमें धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य शिवजीकी कृपा से प्राप्त होते हैं। 

    वे कल्याण करने के कारण शंकर हैं, 1. पिनाक नामक धनुष धारण करनेके कारण पिनाकी हैं तथा उनका कण्ठ नीला एवं देह लाल होनेके कारण वे नीललोहित हैं। 

    जो प्राणी शंकरजीका आश्रय ग्रहण करते हैं अर्थात् उनके शरणागत होते हैं, वे सभी मुक्ति प्राप्त करते हैं। 

    भगवान् शंकरके आश्रित महान् पापी भी अत्यन्त भयावह नरकको प्राप्त नहीं होते, वे शिवजीके शाश्वत पदको पा जाते हैं, इस विषयमें कोई भी सन्देह नहीं है।

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