योग साधना का क्रम।।
।।योग साधना का क्रम।।
जीवको परमार्थतत्त्वका ज्ञान होना ही योग कहा जाता
है और चित्तकी एकाग्रता सर्वदा उन्हीं शिवके अनुग्रहसे
होती है।
वास्तवमें चित्तकी वृत्तियोंपर नियन्त्रण करना ही योग है, सिद्धिप्राप्तिके लिये इस योगके आठ प्रकारके साधन यहाँ बताये गये हैं। पहला साधन यम, दूसरा नियम, तीसरा आसन, चौथा प्राणायाम, पाँचवाँ प्रत्याहार, छठा धारणा, सातवाँ ध्यान तथा आठवाँ साधन समाधि कहा गया है।
तपमें प्रवृत्ति तथा विषयभोगोंसे निवृत्तिको नियम कहते हैं। यमका प्रथम हेतु अहिंसा है, पुनः सत्य, अस्तेय (चोरी
न करना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह भी यमके आधार हैं। सभी प्राणियोंमें आत्मवत् दृष्टि रखने तथा उनके हितके लिये प्रवृत्त रहनेको 'अहिंसा' कहा गया है। जैसा देखा गया हो, सुना गया हो, अनुमान किया गया हो तथा
करके आत्मज्ञानरूपी जलमें स्नान करके शुद्ध हो जानेको अन्त:शौच कहा गया है।
जो पुरुष न्यायपूर्वक अर्जित किये गये धनसे सन्तुष्ट रहता है और गये हुए धनके विषयमें चिन्तित नहीं होता, वह सन्तोषी कहा जाता है। विषयोंमें आसक्त इन्द्रियोंको उनसे हटाकर इन्द्रियोंके नियन्त्रणको प्रत्याहार कहते हैं। हृदयमें चित्तको समाहित करना धारणा कही गयी है।
ध्येय-विषयमें चित्तकी एकाग्रता ही ध्यान है और इस स्थितिमें चित्त अन्य वृत्तियोंसे रहित हो जाता है। चैतन्यस्वरूप ध्येयसे भासित होनेवाला और इस प्रकार देहशून्यताकी स्थितिको प्राप्त वह ध्यान ही समाधि है।
और प्राणायामको इन समस्त ध्यान-समाधि आदिका हेतु कहा गया है। प्राण और अपान वायुका निरोध ही प्राणायाम कहलाता है। यह दो प्रकारका होता है-जपसहित प्राणायाम सगर्भ तथा जपरहित प्राणायाम अगर्भ कहा जाता है।
जो पुरुष योगका अभ्यास करता है, उसके चित्तमें व्यसन उत्पन्न नहीं होता। सतत अभ्यास करनेपर प्राणायामसे उस योगीके मन, वचन तथा कर्मसे उत्पन्न सभी दोष नष्ट हो जाते हैं और इस प्राणायामसे उस बुद्धिमान् योगीके देहकी भलीभाँति रक्षा भी होती है।
योगीको चाहिये कि वह धारणासे पापोंको तथा प्रत्याहारसे विषयोंको विष समझकर दग्ध कर डाले, ध्यानके द्वारा काम, क्रोध आदि अनीश्वर गुणोंको जला डाले तथा समाधिसे बुद्धिकी वृद्धि करे।
उत्तम स्थान प्राप्त करके तथा उचित आसनोंमें स्थित होकर आत्मवित् योगीको विधिपूर्वक योगके आठों अंगोंका क्रमसे अभ्यास करना चाहिये।
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