नन्दी के जन्मका वृत्तान्त।।युगधर्म का वर्णन।।
।।नन्दी के जन्मका वृत्तान्त।।
लिङ्गपुराणके ३७वें अध्याय में मुनि सनत्कुमारने नन्दीश्वरजीसे पूछा कि आपको पार्वतीपति महादेवका सांनिध्य कैसे प्राप्त हुआ ? इसपर नन्दीश्वरने उत्तर दिया मेरे पिता शिलादको एक बार सन्तानकी कामना उत्पन्न हुई, उन्होंने अन्धे होनेपर भी इसके लिये दीर्घकालतक कठोर तपस्या की। उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर वज्रधारी इन्द्र प्रकट हुए। शिलादने कहा- हे सुव्रत ! मैं अयोनिज तथा अमर पुत्र चाहता हूँ इन्द्र बोले कि अयोनिज तथा मृत्युसे हीन पुत्र तो तुम्हें भगवान् ब्रह्मा भी नहीं दे सकते; क्योंकि मरणहीन तो कोई भी नहीं है। ब्रह्माकी भी आयु दो परार्धके बराबर कही गयी है। मैं तुम्हें योनिज तथा मरणधर्मा पुत्रका वर दे सकता हूँ। यदि देवेश्वर भगवान् रुद्र प्रसन्न हो जायँ तो आपके लिये मृत्युरहित एवं अयोनिज पुत्र दुर्लभ नहीं है। मैं (इन्द्र) विष्णु तथा ब्रह्मा ■ भी मृत्युहीन तथा अयोनिज पुत्र देनेमें असमर्थ हैं। केवल ■ शिवकी कृपासे ही अयोनिज पुत्र प्राप्त हो सकता है। विष्णु 1 तथा ब्रह्मा भी उन्हींसे प्रकट हैं और उन्हींकी आज्ञासे सृष्टि, पालन तथा युगधर्मीका प्रवर्तन करते हैं।
।।युगधर्म का वर्णन।।
इस पर शिलादने देवराज इन्द्र से कहा- भगवान् पद्मयोनिने युगधर्म किस प्रकार कल्पित किये? इस विषयमें मुझे बतानेकी कृपा करें। शिलादका वचन सुनकर इन्द्रने युगधर्मौका विस्तारसे वर्णन करना प्रारम्भ किया, जोलिङ्गपुराणके ३९वें अध्याय में प्रस्तुत हैं।
सत्ययुगमें प्रजाएँ समान आयु, सुख तथा रूपवाली होती हैं, उनमें परस्पर द्वेष, द्वन्द्व तथा अवसाद नहीं रहता; अपितु वे एक-दूसरेसे प्रेम करती हैं। इस युगमें वे प्रजाएँ निष्काम कर्मोंमें प्रवृत्त रहनेवाली तथा सदा प्रसन्न रहनेवाली होती हैं। इस समय वर्णाश्रमव्यवस्था अक्षुण्ण रहती हैं तथा प्रजामें वर्णसंकर दोष विद्यमान नहीं रहता।
इसी प्रकार त्रेतायुगमें यज्ञ-अनुष्ठान आदि होते हैं तथा सभीकी व्रतोंमें निष्ठा रहती है तथा कोई भी मनुष्य पशुयज्ञ नहीं करता। उस समय लोग हिंसा न करनेवालेकी प्रशंसा करते हैं।
द्वापर में लोगों में मन, वचन, कर्मसे बुद्धि भेद उत्पन्न होते हैं। कष्टपूर्वक कृषिकार्य भी सम्पन्न होते हैं। सभी लोगोंमें लोभ, वाणिज्यकर्ममें विवाद तथा चित्त-कालुष्यके कारण यथार्थ वस्तुओंके प्रति सन्देह उत्पन्न होने लगता है। द्वापरमें व्यासजीके द्वारा एक वेद चार भागोंमें विभक्त किया जाता है। द्वापरमें रजोगुण तथा तमोगुणसे युक्त इस प्रकारकी वृत्ति कही गयी है।
सत्ययुगमें एकमात्र धर्म ही सर्वत्र रहता है, वह त्रेता में प्रेरणासे प्रवृत्त होता है, वही धर्म द्वापरमें व्याकुल होकर स्थित रहता है तथा फिर कलियुगमें नष्ट हो जाता है।
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