श्रद्धा और भक्ति की महिमा।।
।।श्रद्धा और भक्ति की महिमा।।
एक बार अविमुक्तक्षेत्र वाराणसीपुरीमें भगवान् शिवके साथ विराजमान भगवती रुद्राणीने भगवान् रुद्रसे यह प्रश्न किया-हे महादेव । तप, विद्या, योग आदि किस साधनसे आप वशर्में होते हैं, पूजित होते हैं तथा दर्शन देते हैं ? बाल चन्द्रमाको तिलकरूपमें धारण करनेवाले भगवान शंकरने भगवती
पार्वतीसे कहा-हे कल्याणि जिस प्रकार ब्रह्मात्मक तत्त्व जाननेके लिये तुमने मुझसे प्रश्न किया है, उसी प्रकार प्राचीनकालमें पितामह ब्रह्माने भी मुझसे पूछा था। तब मैंने ब्रह्माजीसे कहा-हे कमल उद्धव पितामह! मैं केवल श्रद्धासे वशमें किया जा सकता हूँ। आपने तथा विष्णुने समुद्रमें जिस लिङ्गका दर्शन किया था, उसीमें सबको मेरा ध्यान करना चाहिये।
श्रद्धा ही परम सूक्ष्म धर्म है। श्रद्धा ही ज्ञान, हवन, तप, स्वर्ग तथा मोक्ष आदिका फल प्रदान करती है और इसी श्रद्धासे भक्त सदा मेरा साक्षात् दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। जो प्राणी प्राणायामपरायण होकर ब्रह्मतत्पर चित्तसे मुझ विश्वेश्वरदेवके शरणागत होते हैं, वे सभी पापोंसे मुक्त विमल आत्मावाले तथा ब्रह्मज्ञानी हो जाते हैं और अन्तमें विष्णुलोकको भी पार करके रुद्रलोकको जाते हैं।
इसके अनन्तर सूतजीके द्वारा श्वेतकल्प, लोहितकल्प, रक्तकल्प, पीतवासाकल्प, असितकल्प, विश्वरूपकल्प आदि विभिन्न कल्पोंकी कथा प्रस्तुत की गयी है; जिसमें सद्योजात, वामदेव, तत्पुरुष, अघोर तथा ईशान नामक महेश्वरके विभिन्न अवतारों एवं उनकी उपासनाके क्रम एवं उनसे प्राप्त फलानुभूतिका वर्णन यहाँ विस्तारपूर्वक
प्राप्त है।
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