देव दारुवन का वृत्तान्त एवं अतिथि- सेवा का माहात्म्य।।
।।देव दारुवन का वृत्तान्त एवं अतिथि- सेवा का माहात्म्य।।
अत्यन्त सुन्दर रूपवाले भगवान् शिवकी मन्द मुसकान तथा भूविलास को देखकर उस बनकी नारियोंमें कामभावना जाग्रत हो गयी तथा वे स्वेच्छाचारिता पूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करने लगीं। उन स्त्रियोंका हाव-भाव और दिगम्बर वेष धारी शिवको उस अवस्था में देखकर वे विप्र मुनीश्वर शंकरजीके प्रति अत्यन्त कठोर वचन कहने लगे।
शिवजीकी मायासे मोहित होनेके कारण वे मुनिगण भगवान् शंकरको नहीं पहचान पाये; फिर भगवान् शिव भी वहाँसे अन्तर्धान हो गये, तत्पश्चात् व्याकुल चित्तवाले वे मुनिगण ब्रह्माजीके पास पहुँचे और वहाँका सारा वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया।
ब्रह्माजीने क्षणभरमें सम्पूर्ण वृत्तान्त जानकर मन-ही-मन शिवजीको प्रणाम करके उन मुनियोंसे कहा- हे विप्रो सर्वोत्तम निधि प्राप्त करके भी तुम अभागोंने उसे गवाँ दिया। उस दारुवनमें जिस विकृत आकारवाले पुरुषको आपने देखा था, वे साक्षात् परमेश्वर शिव ही थे।
ब्रह्माजीने पुनः कहा-गृहस्थों को अतिथियोंकी निन्दा कभी नहीं करनी चाहिये। वे अतिथि विकृतरूपवाले, सुन्दररूपवाले, मलिन तथा मूर्ख-चाहे जैसे भी हों, उनका सत्कार करना चाहिये। भवसागरसे पार होने तथा आत्मशुद्धिके
लिये अतिथि पूजाको छोड़कर गृहस्थों तथा श्रेष्ठ द्विजोंके लिये लोकमें अन्य कोई भी उपाय नहीं है। पूर्वकालमें द्विजोंमें अग्रणी सुदर्शनमुनिने अतिथि पूजाके प्रभाव से साक्षात् कालमृत्युको भी जीत लिया था।
* इस २९वें अध्यायमें सुदर्शनमुनिका दृष्टान्त विस्तारसे लिखा गया है। इसके अनन्तर विप्रगणोंके जिज्ञासा करनेपर संन्यास धर्मका भी वर्णन पितामह ब्रह्माद्वारा किया गया।
अन्तमें ब्रह्माजीने निष्कर्षरूपमें मुनियोंसे कहा कि शिवजीमें भक्ति रखनेवाला प्राणी शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है। महान् आत्मा श्वेतमुनिने महादेवकी भक्तिसे ही मृत्युको भी जीत लिया था। अतः परमेश्वर शिवजी के प्रति आपलोग भी भक्तिपरायण हों।
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