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    श्वेतमुनि का आख्यान।।शिव कथा।।

                  

                   

                     श्वेतमुनिका आख्यान


    ऋषिगणोंके पर ब्रह्माजीने कहा- समाप्त आयुवाले श्वेत नामक एक मुनि गिरिकी एक अवकाश में शिवाराधन में रत थे। 

    उन्हें ले जाने के लिए महातेजस्वीकाल मुनिके पास पहुंच गए और श्वेतमुनिसे ने कहा कि तुम्हारी उम्र समाप्त हो गई है, इसलिए भगवान जाने के लिए मैं यहां आया हूं।

    इसके साथ ही उस महाकालने कुपित सिंह के सदृश घोर गर्जना करते हुए कालपाशके द्वारा मुनिको कपट दिया और उनसे पुनः कहा- तुम मेरे द्वारा पकड़े गए हो, निश्चित महेश्वर रुद्र जो इस लिङ्ग में स्थित है, वह तो निश्चेष्ट है तो फिर तुम उस महेश्वर की पूजा क्यों करते हैं ?

    उसी क्षण भगवान शंकर अपने नन्दी आदि गणेशेश्वरोंसहित शिवलिङ्गसे साक्षात् प्रकट हो गए। शिवजीके देखते ही उसी क्षण भयके कारण कालके प्राण निकल गए और वहीं गिर पड़े। 

    मृतप्राय उस कालको शिवजीने अपनी कृपापूर्ण दृष्टि से पुनः जीवन प्रदान कर दिया। सभी देवगण और मुनिवृन्द उमा महेश्वरको प्रणाम करते हुए जय-जयकार करने लगे तथा नभमण्डल से पुष्प वर्षा होने लगी।

    ब्रह्माजी पुनः कहते हैं- हे द्विजो! सभीको मोक्ष तथा भोग प्रदान करनेवाले मृत्युंजय महादेव की भक्तिपूर्वक पूजा
    करें। शिवकी यह शैवी भक्ति धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और सभी सिद्धियां प्रदान करनेवाली है एवं मृत्यु से विजयवाली है।

    सनत्कुमारके पर कि शत्रुवनके निवासी मुनिगण किस प्रकार उन महादेव की शरणको प्राप्त हुए इसके उत्तर में ब्रह्माने भगवान शंकर की स्तुति के लिए शिवलिङ्ग निर्माण तथा उनकी सविधि पूजाका विधान प्रस्तुत किया तथा साथ ही मुनिगणों से यह कहा कि तुम लोग अपने पुत्रों तथा बन्धु-बंध्वोंसहित एकग्रचित्त महादेवजीका पूजन करो और शूलपानिकी शरण में जाओ उसी देवेश शिव का दर्शन प्राप्त कर सकोगे, जिनके दर्शन से ही समस्त अज्ञान तथा अधर्म नष्ट हो जाता है।

    तत्पश्चात ब्रह्माजी के प्रदक्षिणा करके वे वनवासी मुनि देवशत्रुवन के कारण प्रस्थान कर गए और जैसा ब्रह्माजीने कहा था, समरूप वे योग तथा बन्धुन्धन्धवहित एकाग्र बाचित्ती महादेवजीका पूजन करके उनकी स्तुति करने लगे।

    उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर प्रभु शिवने अपना त्रिनेत्ररूप दिखाते हुए उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की। देवशत्रुवन में निवास करने वाले उन मुनियोंने प्राप्त दिव्य दृष्टिसे त्रिनेत्र देवाधिदेव शिवका दर्शन प्राप्त किया तथा पुनः उनकी स्तुति करने लगे। 

    32वें अध्याय में मुनियों द्वारा की पुरानी शिवकथा स्तोत्ररूप में वर्णित है।
    उन मुनियों द्वारा की गई स्तुति से भगवान महेश्वरने ने कहा कि जो इस स्तुतिको पढ़ेगा या सुनेगा, वह मेरे गणों में मुख्य स्थान प्राप्त करेगा।

    इसके बाद भक्तों के हितार्थ भगवान् ने शुभ उपदेश प्रदान किया और कहा- इस जगत् में समस्त स्त्रीलिंग समुदाय मेरे शरीर से संबंधित प्रकृतिदेवी का ही स्वरूप है, इसी प्रकार सभी पुलिंग-समुदाय मेरी देह से आय पुरुष का स्वरूप है। 

    यह सृष्टि ~ प्रादुर्भूत 'पुरुष-प्रकृति' (नर-नारी) इन दोनों से जुड़ी हुई है–'स्त्रीलिङ्गमिलं देवी प्रकृतिर्मम देहजा ॥ पुललीङ्गं पुरुषो विप्रा मम देहसमुद्भवः । उभाभ्यामेव वै सृष्टिर्मम विप्रा न संशयः ॥' (श्रीलिङ्गमहापुराण पू0 33। 3-4) अतः सभी शिवरूप हैं। अतएव किसी की भी निंदा न करें। 

    महादेव की भक्ति में तत्पर जो व्यक्ति मन,
    वाणी और शरीर से संयत यथोक्त रीति से भगवान शंकर की पूजा करते हैं, वे रुद्रलोक को प्राप्त होते हैं और उनका पुनर्जन्म नहीं होता है।

    यह सब कुछ सुनना उन मुनियों की जागरूकता लोभ और मोह से अनुपयोगी हो जाता है। गए और वे शंकरजीके स्टैड पर सर भरण प्रणाम किए और सविष्य पूजा करके वे सुन्दर स्वरों से महादेवजीका पूजा-गान करने लगे।

    34वें अध्याय में भगवान् शिव द्वारा भस्मधारण, भस्मस्नान और शिवयोगियों की महिमा का प्रतिपादन किया गया है। तथा इसके आगे विष्णुभक्त राजा क्षुप एवं शिवभक्त दधीचिमुनिके बातचीत का वर्णन है।

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